Sunday, December 22, 2024
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ओबीसी के केवल आरक्षण पर ही नहीं, अस्तित्व पर खतरा है।

ओबीसी के केवल आरक्षण पर ही नहीं, अस्तित्व पर खतरा है।
ओबीसी के केवल आरक्षण पर ही नहीं, अस्तित्व पर खतरा है।

तुम मुझे सत्ता दो , मैं चार महीने के अंदर ओबीसी का राजनीतिक आरक्षण वापस वापस देता हूं इस प्रकार की नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के नारे -तुम मुझे खून दो——— से मिलता जुलता नारा लगाने वाले महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस पर विश्वास कैसे करें मुख्यमंत्री बनने के चार महीने के अंदर यदि ओबीसी आरक्षण नहीं दे सका तो राजनीति से सन्यास ले लूंगा उनकी यह घोषणा तो हास्यास्पद ही है सच पूछो तो उनको सन्यास लेने का अवसर कई बार आया था किन्तु उस समय वे “मैं फिर आऊंगा” “मैं फिर आऊंगा” का नारा देने में मग्न थे।
ओबीसी का गया हुआ आरक्षण चार महीने में वापस लाने का आश्वासन देने वाले फडणवीस साहब मुख्यमंत्री रहते हुए कुल चार वर्ष समय लेने के बाद भी ओबीसी आरक्षण वापस नहीं ला सके। यह वास्तविकता है फिर उन पर विश्वास कैसे किया जा सकता है?
मंडल आयोग आंदोलन की पार्श्वभूमि में अस्सी नब्बे के दशक में ओबीसी आंदोलन देश भर आकार लेने लगा था।
बंटवारे की पार्श्वभूमि में 1947 में बना मुस्लिम वोट बैंक, डा. बाबा साहेब आंबेडकर के महापरिनिर्वाण 1956) के बाद निर्मित दलित वोट बैंक और 1985 के बाद बना ओबीसी वोट बैंक ‘यह अपने देश के लोकतंत्र का इतिहास है।
मुस्लिम व दलित वोट बैंक ने कांग्रेस पार्टी का आधार मजबूत किया किन्तु ओबीसी वोट बैंक के कारण कांग्रेस व भाजपा का भी आत्मविश्वास डगमगाने लगा।
1990 में ओबीसी वोट बैंक कैश करके फिर से प्रधानमंत्री बनने का वीपी सिंह का सपना भंग होने के बावजूद उनके द्वारा आंशिक रूप से मंडल आयोग लागू करने के कारण ओबीसी आंदोलन अधिक जोर पकड़ने लगा।
अनेक ओबीसी बहुल राज्यों में ओबीसी की पार्टियां स्थापित होने लगीं और वे सत्ता में भी आने लगीं, फलस्वरूप कांग्रेस व भाजपा को झटका लगा खासकर गांव स्तर का जनाधार कमजोर होने लगा उसे संवारने के लिए 1994 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने 73वां एवं 74वां संविधान संशोधन करके अपना ओबीसी वोट बैंक बचाने का प्रयत्न किया ,इस संविधान संशोधन के कारण ओबीसी के साथ एससी एसटी (दलित आदिवासी) वर्ग को भी स्थानीय स्वराज्य संस्थाओं में आरक्षण देना पड़ा 1994 के पहले किसी भी वंचित वर्ग को स्वराज्य संस्थाओं में आरक्षण नहीं था, केवल ओबीसी के कारण एससी एसटी वर्ग को भी यह संवैधानिक राजनीतिक आरक्षण मिलने लगा।
महाराष्ट्र में कुछ विद्वान इस संविधान संशोधन का श्रेय मा. शरद पवार को देते हैं इससे इन विचारकों को टिकट पाने की कितनी जल्दी है कल्पना कर सकते हैं।

1994 में ही इस संविधान संशोधन को चुनौती देने वाली याचिका के कृष्ण मूर्ति ने सुप्रिम कोर्ट में दाखिल किया।
के. कृष्ण मूर्ति विरुद्ध भारत सरकार की इस याचिका पर निर्णय 2010 में आया ।
इस निर्णय में तीन महत्वपूर्ण मुद्दे इस प्रकार थे,
1) सुप्रिम कोर्ट ने 73वें और 74वें संविधान संशोधन को वैध ठहराया।
2) एससी+एसटी+ओबीसी इन तीनों वर्गों का कुल आरक्षण 50% से ऊपर नहीं जाना चाहिए।
3) एससी व एसटी चुनाव क्षेत्र छोड़कर अन्य चुनाव क्षेत्रों का इंपेरिकल डेटा इकट्ठा करें व उसके आधार पर ओबीसी का आरक्षण निश्चित करें।
किन्तु उस समय इस निर्णय को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया, जिसका मुख्य कारण यह था कि 2009 से 2011 के दौरान ओबीसी जनगणना के लिए आंदोलन चल रहा था।
संसद में कई बार ओबीसी जनगणना के मुद्दे पर हंगामा हो चुका था संसद बंद भी कराई जा चुकी थी ।
ओबीसी सांसद संसद के अंदर और बाहर भी जोरदार भाषण करके प्रस्थापित पार्टियों की हालत खराब किए हुए थे।
उच्च जातियों की पार्टियों कांग्रेस व भाजपा के सांसद विधायक रहे ओबीसी नेता खुल्लमखुल्ला प्रस्थापित व्यवस्था के विरुद्ध बोलने लगे थे,ऐसे समय में सुप्रिम कोर्ट के इस ओबीसी विरोधी निर्णय पर बोलने की हिम्मत कौन करता? उसे लागू करने की बात तो दूर ही रह गई।
ओबीसी जनगणना के सवाल पर आक्रामक आंदोलन करने वाले करीब-करीब सभी ओबीसी नेताओं को 2016 तक अलग अलग तरीकों से चुप कर दिया गया। ईडी, सीबीआई, मीडिया ट्रायल, निष्कासन, जेल, दुर्घटना, जैसे सभी वैध – अवैध रास्तों का इस्तेमाल करके ओबीसी नेताओं को खत्म करने में सफलता मिलने के बाद 2016 में 2010 के सुप्रिम कोर्ट के निर्णय को लागू करने का मार्ग खुल गया।
इस निर्णय का आधार लेकर 2016 में नागपुर हाईकोर्ट की खंडपीठ में ओबीसी के राजनीतिक आरक्षण के खिलाफ याचिका दाखिल हुई , उस समय महाराष्ट्र में मा. देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री थे, खंडपीठ के सामने हुई पहली सुनवाई में ही फडणवीस सरकार की तरफ से कहा गया कि-
‘ इस बारे में योग्य उपाय योजना सरकार कर रही है’ किन्तु प्रत्यक्ष रूप से इस बारे में एक भी कदम नहीं उठाया गया।
खंडपीठ द्वारा बार-बार सूचित करने के बाद 9 मार्च 2017, 27 अगस्त 2018 व उसके बाद फिर 28 अक्टूबर 2018 को उपाय योजना के लिए समय की मांग की गई, इस प्रकार चार वर्ष में चार बार समय मांगने के बाद भी फडणवीस सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की, इसके विपरीत फडणवीस सरकार ने स्थानीय स्वराज्य संस्थाओं के चुनाव कराने देने की विनती की ।
खंडपीठ ने न्यायालय के निर्णय के आधीन रहकर चुनाव कराने की अनुमति दी।
इस प्रकार कोई भी इंपेरिकल डेटा राज्य चुनाव आयोग को न देते हुए अस्थाई अध्यादेश निकालकर यह चुनाव करा लिए गए। चुनाव होने के बाद भी फडणवीस सरकार इस विषय पर सुस्त ही रही।
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने ओबीसी के 27% आरक्षण के आदेश पर स्थगन दिया है यह स्थगन उठाने के लिए हाईकोर्ट को ओबीसी का प्रतिशत,आंकड़ा व अन्य जानकारी देना आवश्यक था मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने केंद्र सरकार से यह जानकारी मांगी व केन्द्र सरकार ने दिया।
उसी समय फडणवीस ने भी महाराष्ट्र के ओबीसी की जानकारी मांगी परंतु केंद्र ने फडणवीस को यह जानकारी दी ही नहीं।
शिवराज सिंह को जानकारी मिलती है फडणवीस को क्यों नहीं मिलती?
शिवराज सिंह ने चाय मंगाया
वैसे ही फडणवीस ने भी चाय मंगाया परंतु शिवराज सिंह ने चाय लाने के लिए भाई को भेजा व फडणवीस ने चाय लाने के लिए नाना को भेजा,
भाई की चाय आती है , किंतु नाना की चाय कभी नहीं आती।
शिवराज सिंह ओबीसी वर्ग का होने के कारण भाई को चाय लाने को भेजते हैं व फडणवीस ब्राह्मण होने के कारण उन्होंने नाना को चाय लाने के लिए कहा।
फडणवीस मुख्यमंत्री रहते हुए 2016 से 2019 इस चार वर्ष में नहीं कर सके वह काम अब वे चार महीने में कर दिखाने का दावा कर रहे हैं और उसके लिए फिर से मुख्यमंत्री पद की मांग ओबीसी जनता से कर रहे हैं।
फडणवीस जैसे राजनीतिज्ञ झूठ बोलते हैं लेकिन जोरदार तरीके से बोलते हैं किन्तु अब चूंकि ओबीसी जागरूक हो चुका है इसलिए ऐसे झूठे आश्वासनों पर वह विश्वास करने को तैयार नहीं।
उसके बाद 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद तीन पार्टियों की ‘ महाराष्ट्र विकास आघाड़ी’ की सरकार आई , इस नई सरकार ने भी इस विषय ध्यान नहीं दिया,
फडणवीस सरकार द्वारा निकाले गए 31 जुलाई 2019 के अस्थाई अध्यादेश की समय-सीमा समाप्त होने के पहले म. वि. आ. सरकार को इस विषय पर कुछ उपाय योजना करनी चाहिए थी किन्तु कोई कार्रवाई न होने के कारण वह समय-सीमा समाप्त हो गई, उसके बाद विकास गवली नाम के व्यक्ति ने सुप्रिम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया फलस्वरूप महाराष्ट्र के पांच जिलों के स्थानीय स्वराज्य संस्थाओं के ओबीसी चुनाव क्षेत्रों के चुनाव रद्द हो गए उसके साथ ही देश भर के ओबीसी के राजनीतिक आरक्षण भी खतरे में आ गया।
उसके बाद उद्धव ठाकरे सरकार एवं विरोधी पार्टियां भी एक साथ जागृत हो उठीं किन्तु यह जागृति उनके द्वारा एक दूसरे के ऊपर आरोप-प्रत्यारोप करने के लिए आई थी काम करने के लिए नहीं।
इंपेरिकल डेटा इकट्ठा करने व योग्य निष्कर्ष निकालकर ओबीसी आरक्षण बचाने के लिए ताबड़तोड़ विशेष (समर्पित) विशेषज्ञों का आयोग नियुक्त करना अपेक्षित था , परंतु वैसा न करके राज्य पिछड़ा आयोग को ही काम करने को कहना अर्थात अज्ञानता की पराकाष्ठा।
इसी दौरान चुनाव आयोग ने चुनाव कानून के तहत बिना ओबीसी आरक्षण के ही चुनाव की घोषणा कर दी है।

इसके लिए तकनीकी दृष्टि से विरोधी पक्ष और सरकारी पक्ष दोनों जिम्मेदार हैं तो भी महाराष्ट्र की पांचों प्रमुख पार्टियों के नेता उच्च जातीय (मराठा-ब्राह्मण) होने के कारण वे ओबीसी का ध्यान रखेंगे ऐसी अपेक्षा करना गलत होगा, सामाजिक दृष्टि से विचार करेंगे तो ओबीसी का राजनीतिक आरक्षण खत्म करने में ओबीसी विधायक व ओबीसी मंत्री ही ज्यादा जिम्मेदार हैं, प्रस्थापित व्यवस्था ने जुझारू ओबीसी नेताओं के विरुद्ध ईडी, सीबीआई, निष्कासन, मीडिया ट्रायल, जेल व दुर्घटना आदि साधनों का उपयोग बड़े स्तर पर करने के कारण ओबीसी नेता ओबीसी के सवाल पर बोलने से घबराते हैं उसकी तुलना में मराठा (क्षत्रिय) जाति के मंत्री अपने मराठा जाति के हित के लिए किसी भी हद तक जाने की हिम्मत करते हैं।
ओबीसी की (महाज्योति) संस्था का 125 करोड़ रुपए वापस लेकर वह मराठा के (सारथी) संस्था को देना, पिछड़े वर्ग के अधिकारी- कर्मचारी के प्रमोशन में आरक्षण एक सादा जी. आर. निकालकर रद्द करना, समाज कल्याण विभाग के 105 करोड़ रुपए वापस लेना, ऐसे कितने ही काम मराठा जाति के हित में गैरकानूनी रूप से किए जाते हैं।
किन्तु ओबीसी के संवैधानिक अधिकार सुरक्षित रखने के लिए ओबीसी मंत्री न पार्टी की बैठक में बोलते हैं और न ही मंत्रिमंडल की बैठक में प्रस्ताव रखते हैं।
सिर्फ अपना ओबीसी नेतृत्व सुरक्षित रखने के लिए रास्ते पर आंदोलन की नौटंकी करते हैं, अर्थात ऐसे ही आंदोलन करने के लिए अपने उच्च जातीय मालिकों के आदेश का इंतजार करते हैं।
मृत्यु अथवा जेल की दहशत में रहकर ओबीसी वर्ग का सत्यानाश करने से अच्छा है इन ओबीसी नेताओं को ताबड़तोड़ इस्तीफा देकर घर बैठना चाहिए।
ओबीसी नेताओं को राजनीतिक मृत्यु स्वीकार करने के बजाय तमिलनाडु की ओबीसी पार्टियों से सीख लेनी चाहिए।
तमिलनाडु में पिछले पचास सालों से ओबीसी पार्टियां सत्ता में हैं,इन ओबीसी सत्ताधारियों ने अपने राज्य में दलित, आदिवासी, मुसलमान, क्रिश्चियन एवं मराठा के समकक्ष रही क्षत्रिय जातियों को उनकी जनसंख्या के अनुसार स्वतंत्र आरक्षण दिया है उसके लिए इन ओबीसी सत्ताधारियों ने संविधान की भी परवाह नहीं की,सुप्रिम कोर्ट एवं केन्द्र सरकार के अनेक आरक्षण विरोधी आदेशों को उन्होंने धुड़का दिया है।
इसे कहते हैं स्वाभिमान की राजनीति! यह स्वाभिमान की राजनीति कर सकें इसके लिए तमिलनाडु के ओबीसी नेताओं ने बीते सौ सवा सौ सालों से क्या क्या तपस्या की है वह लिखने की यह जगह नहीं है।
उसके लिए महाराष्ट्र के ओबीसी नेता मेरे पास नि: शुल्क शिक्षण ले सकते हैं।
ओबीसी वर्ग का सिर्फ आरक्षण ही नहीं बल्कि अस्तित्व भी खतरे में आ चुका है ऐसी परिस्थिति में मेरे शिक्षण क्लास के अलावा दूसरा कोई भी मार्ग नहीं बचा है यह बात जिस दिन ओबीसी नेताओं के समझ में आ जायेगी ओबीसी आंदोलन के वह स्वर्णिम दिन होगा।
सत्य की जय हो!

धन्यवाद!
(लेखक 40 वर्षों से ओबीसी आंदोलन से जुड़े हुए हैं और उन्होंने अनेक पुस्तकें इस विषय पर लिखी हैं)
प्रो. श्रावण देवरे, नासिक
मो.9422788546

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