Sunday, December 22, 2024
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*महाराष्ट्राके कसबा-चिंचवड उपचुनाव का बोधामृत:*

*ब्राह्मणी-अब्राम्हणी, ओबीसी, वंबआ, न-कलाटे, आनंद दवे वगैरह*

*लेखक- प्रोफे. श्रावण देवरे*

पहले उपचुनावों को ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया जाता था, लेकिन अभी हाल में हुए महाराष्ट्र के कसबा व चिंचवड विधानसभा क्षेत्र में उपचुनाव युद्ध स्तर पर लड़े गए. दोनों उपचुनावों में सभी पार्टियों के सेनापति-सरदार से लेकर राजा और वजीर तक सारे महारथियों ने सबकुछ दांव पर लगाकर चुनाव लड़ा और लड़ाया. जिन पार्टियों के उम्मीदवार नहीं थे उन पार्टियों के सर्वोच्च पदाधिकारियों ने भी जी तोड़ मेहनत की. सभी नेताओं के रोज-रोज रणभेरी बजाने एवं ललकारने से जनता में भी जोश आ गया तो उसने भी उत्साहपूर्वक मत डाले और मतोंका का आंकड़ा जनरल इलेक्शन तक पहुंचा दिया. आमतौर पर उपचुनावों में जनता भी उदासीन रहती है. इसलिए जनरल इलेक्शन की अपेक्षा उपचुनावों में मतोंका का आंकड़ा हमेशा कम ही रहता है. परंतु तुलनात्मक आंकड़ा देखें तो इस उपचुनाव में जनता ने लगभग उतना ही मत दिया जितना जनरल इलेक्शन में दिया था. 2019 के विधानसभा चुनाव में कसबा मतदार क्षेत्र में 51.54% वोट पड़े थे वहीं अभी के उपचुनाव में 50.06% वोट पड़े. चिंचवड विधानसभा क्षेत्र में 2019 के चुनाव में 53.59% वोटिंग हुई थी वहीं 2023 के उपचुनाव में 50.57% वोटिंग हुई. जनता ने भी इस चुनाव को गंभीरतासे लिया. किसी भी सार्वजनिक घटना से कोई न कोई शिक्षा मिलती है. इस उपचुनाव की घटना से भी बोधामृत की कुछ बूंदें मिलती हैं क्या, यह देखते हैं !
1) उपचुनाव भी जब युद्ध स्तर पर लड़े जांय तो उससे भारत का लोकतंत्र मजबूत हुआ ऐसा समझा जाय क्या?
इस सवाल का जबाब है ‘नहीं’! केवल चुनाव कर लेने से लोकतंत्र स्थापित नहीं हो जाता. हिटलर के जर्मनी मे व साम्यवादियों के रशिया-चीन में भी चुनाव होते रहते हैं, परंतु वहाँ कभी लोकतंत्र स्थापित नहीं हो सका. *लोकतंत्र तभी मजबूत होता है, जब दो या उससे अधिक विचारधारा के आधार पर राजनीतिक पार्टियां चुनाव लड़ती हैं.*
भारत की मुख्य राजनीतिक पार्टियां ब्राह्मणी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती हैं, इसलिए एक ही मूलभूत विचारधारा की राजनीतिक पार्टियां एक दूसरे को शत्रु की तरह झूठा आभास कराती हैं, और जनता उसे सच मानकर अपने मताधिकार का प्रयोग करती रहती है. इसका परिणाम यह होता है की, एकही ब्राह्मणवादी विचारधाराकी पार्टीया अलट-पलटकर सत्ता मे आती रहती है. कॉंग्रेस और भाजपा इसका उदाहरण हो सकता है. *भारत में आज दो ही मुख्य विचारधारा हैं- एक जातिव्यवस्था की समर्थक ब्राह्मणी विचारधारा और दूसरी जातिअंतक अ-ब्राह्मणी विचारधारा!* सत्ता के करीब रही अधिकतर पार्टियां ब्राह्मणी छावनी का प्रतिनिधित्व करती हैं. खुद को प्रगतिशील एवं क्रांतिकारी माननेवाली फुले-अंबेडकरवादी व मार्क्सवादी पार्टियां भी जैसे तैसे इन्हीं प्रस्थापित पार्टियों की पूंछ पकड़कर अपना अस्तित्व टिकाए हुए हैं. इसका एकमात्र पूर्ण अपवाद है तो वह है तमिलनाडु की डीएमके ओबीसी पार्टी का और अंशतः लालू- मुलायम की ओबीसी पार्टी का.
*सांस्कृतिक स्तर पर जनता का ध्रुवीकरण ब्राह्मणी- अब्राह्मणी करने से तमिलनाडु की अब्राह्मणी जनता ने ओबीसी के नेतृत्व में अपनी अब्राह्मणी पार्टी खड़ी किया है. इसलिए तमिलनाडु में ब्राह्मणी छावनी अक्षरशः पराभूत जीवन जी रही है.* मतलब तामीळनाडू मे कॉंग्रेस का अस्तित्व लगबग खतम हो गया है और संघ-भाजपा तो अपना अस्तित्व बनाही नही पाया है. बिहार व उप्र में जनता का ध्रुवीकरण राजनीतिक स्तर पर ब्राह्मणी-अब्राह्मणी होने के कारण वहाँ के ओबीसी के नेतृत्व में लालू- मुलायम की पार्टियां खड़ी हैं और वे पार्टियां ब्राह्मणी छावनी को सीना तान कर चुनौती दे रही हैं. जिस दिन बिहार व उप्र की ओबीसी पार्टियां सांस्कृतिक स्तर पर ब्राह्मणी-अब्राह्मणी ध्रुवीकरण शुरू करेंगी उस दिन वहाँ की दलित जनता मायावती एवं पासवान को छोड़कर तमिलनाडु के दलितों की तरह ओबीसी नेतृत्व को स्वीकार कर लेंगी.
2) महाराष्ट्र की फुले-आंबेडकरवादी कहलानेवाली पार्टियां संघ-भाजपा की पूंछ पकड़कर अपना राजनीतिक अस्तित्व दिखाने का प्रयास करती हैं. कम्युनिस्ट पार्टियां कभी कांग्रेस तो कभी राष्ट्रवादी कांग्रेस की पूंछ पकड़ती हैं. *इसलिए महाराष्ट्र की जनता का भी राजनीतिक रूप से ब्राह्मणी- अब्राह्मणी ध्रुवीकरण नहीं हो रहा है. ध्रुवीकरणही नहीं होगा तो तुम्हारा कोई भी राजनीतिक विकल्प खड़ा हो ही नहीं सकता.* इसलिए कांग्रेस को पराभूत करने के लिए कभी भाजपा की पूंछ पकड़ना और बादमे भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस की पूंछ पकड़ना! यही एक काम प्रगतीशील पार्टीयों के लिये रह गया है.
3) इस उपचुनाव के विश्लेषण में *’कलाटे’ व ‘न-कलाटे’* फैक्टर को खूब महत्व दिया जा रहा है. कलाटे नाम के उम्मिदवारके कारण चिंचवड में भाजपा जीती और कसबा में ‘कलाटे’ फैक्टर न होने के कारण *(न-कलाटे के कारण)* भाजपा हार गई. इस मुद्दे पर भरपूर चर्चा होते हुए दिख रही है.
*संघ-भाजपा को पराभूत करने के लिए ऐसे कितने “न-कलाटे” पर कबतक उलझे रहेंगे? फुले आंबेडकरवादी के रूप में व मार्क्सवादी-समाजवादी के रूप में कभी अपना खुद का अस्तित्व दिखायेंगे कि नहीं?* मान्यवर प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन आघाडी को केवल कांग्रेस-राष्ट्रवादी को पराभूत करना होता है, इसके लिए वह भी “कलाटे” फैक्टर का ही आधार लेती है, पार्टी का खुद का वैचारिक ध्रुवीकरण कहीं भी नहीं है, है भी तो नाते-रिश्तेदारों का भावनात्मक ध्रुवीकरण!
4) *’आनंद दवे’* नाम का एक और फैक्टर इस उपचुनाव के विश्लेषण में आता है. कसबा विधानसभा क्षेत्र ब्राह्मणों के एकाधिकारवाला क्षेत्र है. क्योंकी इस मतदार क्षेत्र मे 30 साल से भाजपा का ब्राह्मण उम्मिदवार चुनाव जीत रहा है. लेकीन इस उपचुनाव मे कॉंग्रेस और भाजपाने ओबीसी उम्मिदवार खडे किये है. मतलब अब की बार जो भी उम्मीदवार चुनके आयेगा, वो ओबीसी होगा. इसतरहसे ब्राह्मणोंका अधिकारवाला मतदारक्षेत्र ओबीसी को दिया जा रहा है, इसका गुस्सा मन में लेकर ब्राह्मण महासभा के नेता आनंद दवे चुनाव में खड़े हुए. अर्थात दवे के पीछे कोई वैचारिक भूमिका नहीं थी, जाति की भूमिका लेकर दवे मैदान में उतरे. *कुछ पुरोगामियों को ऐसा लगता था कि ‘आनंद दवे ब्राह्मणों का वोट खाकर भाजपा को पराभूत करने में उपयोगी सिद्ध होंगे.’ ब्राह्मण ये ब्राह्मण जाति के आनंद दवे को वोट देकर ब्राह्मणी विचारधारा की पार्टी भाजपा को पराभूत करेंगे.* ऐसा विचार करने वाले मूर्ख पुरोगामियों का वैचारिक दिवाला ही निकला हुआ है.
चुनाव में विचारों को नगण्य समझकर केवल जाति के नाम पर वोट देने की मूर्खता मराठा, माली से लेकर दलित-आदिवासी तक सभी जातियाँ करती रहती हैं. दवे यदि मराठा- माली या दलित- आदिवासी वगैरह होते तो शायद चुनाव में रंग भरा होता. किंतु दवे ऐसी जाति का प्रतिनिधित्व कर रहे थे जो प्रसंग देखकर अपना वोट व कृति भी बदलती है. देश में ब्राह्मण ऐसी एकमात्र जाति है जो “जाति का फैक्टर कब कहाँ आगे करना है व विचारों का फैक्टर कहाँ और कैसे आगे करना है.” इसका ध्यान रखती है.
ब्राह्मण राजनीति में ‘अब्राह्मण’ जाति को आगे करके सत्ता पर कब्जा करते हैं और इस सत्ता का उपयोग केवल ब्राह्मण जाति के हित के लिए कैसे हो सकता है, इसका ध्यान रखते हैं. *सत्ता पाने के लिए राजनीति में “हम सब हिन्दू” यह भूमिका ब्राह्मण लेते हैं और सत्ता मिलने के बाद “हम सिर्फ ब्राह्मण व तुम सब शूद्र!” ऐसी भूमिका लेते हैं.* दिल्ली में ‘ओबीसी-मोदी’ को आगे करके व महाराष्ट्र में ‘मराठा-शिंदे’ को आगे करके सत्ता प्राप्त करना व इस सत्ता का उपयोग करके ब्राह्मण हित का कार्यक्रम लागू करना!
*2014 से सत्ता प्राप्त करने के बाद ब्राह्मणोंने ओबीसी आरक्षण को संकट में डालकर सुदामा (10%) आरक्षण को मजबूत किया है. दलित- ओबीसी- आदिवासी आदि को बजट में नगण्य करके व अडानी- अंबानी को मजबूत किया है, भिड़े ब्राह्मण जैसे दंगाइयों व दाभोलकर- पानसरे के हत्यारों को संरक्षण दिया है, भीमा कोरेगांव जैसे दंगे करवाए और ऐसे ही अनेकों ब्राह्मण हित के कार्यक्रम सतत क्रियान्वित किये है.*
राजनीति में ‘जाति पीछे रखकर’ विचारों को महत्व देने वाली व सत्तानीति में ‘विचार पीछे करके’ जाति को महत्व देनेवाली ब्राह्मण जाति ने आनंद दवे की जमानत जब्त करवायी, तो इसमें आश्चर्य कैसा? कसबा क्षेत्र के 40 हजार ब्राह्मणोंमे से केवल 296 ब्राह्मणोंने आनंद दवे को जातीके नामसे वोट दिया और बाकी के 24,704 ब्राह्मणोंने विचारोंको वोट दिया है. *0.74 परसेंट ब्राह्मणोंने जाती के नाम माटी खायी और 99.26 परसेंट ब्राह्मणोंने विचारोंको मत देकर लोकशाही को अपनी जातीके लिए बचाने की कोशीस की है. बहुजनो मे एक भी मतदाता ‘अपनी जातीके लिए’ विचारोंको वोट नही देता है.*
5) कसबा उपचुनाव के निमित्त ‘ओबीसी’ फैक्टर ज्यादा ही उभरकर आया है. पिछले तीस सालों से ब्राह्मणों के एकाधिकारवाला यह किला अभी अचानक ओबीसी के हवाले क्यों किया गया? इस पर विचार होना चाहिए. कांग्रेस व भाजपा इन दोनों प्रस्थापित पार्टियों द्वारा ओबीसी उम्मीदवार देना, यह चमत्कार अचानक ही नहीं घटित हुआ.
राजनीति में कोई भी कभी कुछ फुकट में नहीं देता है, कसबा विधानसभा क्षेत्र में ओबीसी मतदाताओं की बहुलता है. किंतु जबतक ओबीसी ब्राह्मणों के प्रभाव में था तबतक कसबा के मुट्ठीभर ब्राह्मणवाले क्षेत्र में ब्राह्मण उम्मीदवार चुनकर आता था. किंतु बीते कई वर्षों से ओबीसी आंदोलन के जोर पकड़ने के कारण जनजागृति बढ़ रही है. जागृत हुआ 52% ओबीसी वोटबैंक कैश करने के लिए ओबीसी बहुल कसबा विधानसभा क्षेत्र में दोनों प्रमुख पार्टियों ने ओबीसी उम्मीदवार दिया.
6) गली मुहल्ले में छोटेमोटे कार्यकर्ता अपनी जेब से पैसा डालकर ओबीसी आंदोलन चलाते हैं. जिससे जनजागृति होती है, किन्तु इस जनजागृति को ओबीसी उम्मीदवार देकर कांग्रेस-भाजपा कैश कराती रहती हैं, यह कसबा उपचुनाव से सिद्ध होता है. ऐसे समय में ओबीसी आंदोलन का एकाध कार्यकर्ता को चुनाव में खड़े होना चाहिए था.
चुनाव जनजागृति का बड़ा माध्यम है, यह हमें बाबासाहेब अंबेडकर बताते हैं. चुनाव केवल जीतने के लिएही नहीं लड़े जाते, बल्कि अपने विचार व अपने मुद्दे जनता तक ज्यादा प्रभावी रूप से ले जाने के लिए चुनाव लड़ना होता है. उसी तरह कार्यकर्ता द्वारा किये गये काम का जनता पर कितना असर हुआ है, इसका आकलन भी चुनाव में मिले वोटों के जरिये किया जा सकता है. *५ जनवरी 2023 को ओबीसी कार्यकर्ता सपना माली के उपोषण मंडप में बोलते हुए मैंने आह्वान किया कि, ‘पुणे के दोनों उपचुनावों में स्वतंत्र रूप से ओबीसी आंदोलन का उम्मीदवार खड़ा करना चाहिए एवं केवल ओबीसी जातिआधारित जनगणना के मुद्दे पर यह चुनाव लड़ना चाहिए.’* मेरे इस ऐलान के कारण शायद कॉंग्रेस और भाजपाने ओबीसी उम्मिदवार दिये है. इसका यही मतलब होता है की, कसबा क्षेत्रमे अगर ओबीसी आंदोलन का कार्यकर्ता स्वतंत्र रुपसे खडा हो जाता, तो कॉंग्रेस-भाजपाको हारने का डर सता रहा था, इसीलिये दोनो प्रस्थापित पार्टीयोंने ओबीसी उम्मीदवार खडे किये. कार्यकर्ता भूखे रहकर भी काम करें और उस काम की मलाई प्रस्थापित पार्टियां उड़ा ले जायं, यह धंधा अब बंद होना चाहिए.
प्रस्थापित पार्टियां ऐसे ओबीसी व्यक्ति को टिकट देती हैं, जो गुलाम है, ऐसे ओबीसी उम्मीदवार विधायक बनने के बाद ब्राह्मण- मराठाकीही दलाली करते हैं, ओबीसी जनगणना के लिए विधानसभा में कभी नहीं लड़ते. इस उपचुनाव में ‘स्वतंत्र ओबीसी आंदोलन’ का उम्मीदवार खड़ा करके ओबीसी जाति आधारित जनगणना का मुद्दा देशके राजनैतिक अजेंडेपर लाया जा सकता था.
7) हमेशा की तरह मान्यवर प्रकाश अंबेडकरकी *वंचित बहुजन आघाडी* ने इस चुनाव में भी अपनी भूमिका निभाई. जिसके कारण हमेशा की तरहही उस पर वही आरोप लगे. चिंचवड में भाजपा को जिताने के लिए वंचित बहुजन आघाडी ने पैसे लिए वगैरह आरोप निम्न स्तर पर किए गए. चिंचवड में यदि पैसे लेकर भाजपा को जिताना होता तो कसबा में भी वंचित बहुजन आघाडी को पैसे देकर उम्मीदवार खड़ा करने को कहा गया होता, किंतु वैसा नहीं हुआ. इसलिए वंचित बहुजन आघाडी पर लगाए गए आरोप निराधार हैं. *जाति धर्म के समाज में अपना अस्तित्व सिद्ध करने के लिए स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ना होता है, और वह लोकतंत्र में दिया गया अधिकार है. लोकतंत्र का मंतव्य यही है कि तुम्हारा स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करने के लिए उसका वैचारिक आधार होना चाहिए.* केवल जाति धर्म के आधार पर चुनाव लड़ना लड़ना लोकतंत्र के लिए मारक है.
युपी-बिहार में ओबीसी जनता ने अपनी राजनीतिक पार्टी स्थापित करके अपने ‘ओबीसी अस्तित्व’ को सिद्ध किया. किंतु उसके लिए उन्होंने ‘लोहियावादी-समाजवादी’ विचारधारा को स्वीकार किया है. तमिलनाडु में ओबीसी ने अपनी राजनीतिक पार्टी स्थापित करके अपना अस्तित्व सिद्ध किया किंतु उसके लिए उन्होंने ‘फुलेवादी-अब्राह्मणी विचारधारा’ को स्वीकार किया. संघ- भाजपा के ब्राह्मणों ने अपनी जाती की राजनीतिक पार्टी (भाजपा को) स्थापित किया किंतु उसके लिए उन्होंने ‘हिन्दुत्व की विचारधारा’ को स्वीकार किया. विचारधारा के आधार पर जातिअंतक पार्टी स्थापित करके मा. कांशीराम, पासवान, आठवले, महादेव जानकर व प्रकाश आंबेडकर जैसे नेता अपयशी सिद्ध हुए क्योंकि वे स्वीकार की हुई फुले-आंबेडकरी विचारधारा पर डगमगाते रहे. एक पैर आंबेडकरवाद पर, तो दूसरा पैर संघ-भाजपा के ब्राह्मणवाद पर, ऐसी उनकी स्थिति थी और आज भी है.
*बिहार, उप्र व तमिलनाडु के ओबीसी ने विचारधारा के आधार पर कृति कार्यक्रम भी चलाया. मंडल आयोग, राममंदिर विरोध, अब्राह्मणी सांस्कृतिक राजनीति, आरक्षण का विस्तारीकरण एवं ऐसे ही वैचारिक कृति- कार्यक्रम वहाँ के ओबीसी ने चलाया इसलिए वहा के ओबीसी नेता आज भी स्वाभिमान से खड़े होकर संघ- भाजपा को चुनौती दे रहे हैं.* फुले-आंबेडकरवाद पर आधारित ऐसा एक भी कृति-कार्यक्रम मा.कांशीराम, पासवान, आठवले, जानकर व प्रकाश आंबेडकर ने नहीं चलाया. इसलिए ये पार्टियां संघ-भाजपा के शरण में गई हुई दिख रही हैं. *‘इस चुनाव से उस चुनाव तक’*, यही एकमेव इनका कृति- कार्यक्रम! इसलिए ये पार्टियां खुद को फुले-आंबेडकरवादी कहलवाने के बावजूद वे प्रत्यक्ष ‘जातीय’ पार्टियों के रूप में अपनी भूमिका निभाती हैं एवं संघ- भाजपा को जीवन दान देती हैं.
देशभर के ओबीसी संगठन ‘जाति आधारित जनगणना का कृति-कार्यक्रम लेकर आंदोलित हैं. जाति आधारित जनगणना मतलब जातिअंत की पहली सीढ़ी है! जाति नष्ट करना है तो उसके लिए जातियों का डेटा आवश्यकही होता है. आज जातियों का डेटा किसी भी प्रगतिशील आंदोलन के पास नहीं है और फिर भी वे जाति नष्ट करने की बात करते रहते हैं. *ओबीसी के नेतृत्व में चल रहे ‘जाति आधारित जनगणना’ आंदोलन में सभी फुले-आंबेडकरवादी, मार्क्सवादी-समाजवादी आदि पुरोगामियों को शामिल होना चाहिए. उसमें से बिहार, उप्र व तमिलनाडु की तरह ओबीसी के नेतृत्व में वैकल्पिक राजनीतिक दल या अलायन्स खड़ा किया जा सकता है. राष्ट्र स्तर पर ब्राह्मणी-अब्राह्मणी ध्रुवीकरण को गतिशील करके ओबीसी नेतृत्व की पार्टी देश की सत्ता पर कब्जा कर सकती है और जाति अंतक, वर्ग अंतक कृति-कार्यक्रम लागू किया जा सकता है.* यही महत्वपूर्ण बोधामृत चिंचवड-कसबा उपचुनाव हमें देता है. यह बोधामृत आपके मुंह में (दिमाग में) जल्दी पड़े ऐसी अपेक्षा करते हुए सभी को जय जोती, जयभीम व सत्य की जय हो!

*लेखक- प्रो.श्रावण देवरे*
*मोबाईल-* 88 301 27 270
*Email-* s.deore2012@gmail.com

मराठी से हिंदी अनुवाद
चन्द्र भान पाल

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