Sunday, December 22, 2024
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“अस्पृश्यता एक लाईलाज वैचारिक कैंसर”

मूकनायक /राजस्थान/बूंदी

विष्णु प्रसाद बैरवा

दिसम्बर 1920 को एक विशाल जन सभा सम्बोधित करते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि “साम्राज्यवाद की शैतानियत मिटाना आसान है क्योकि वह व्यावहारिक तथा बाहरी खतरा है जबकि अस्पृश्यता ने देश में धार्मिक रंग ग्रहण कर लिया है जिसे मिटाना एक दुष्कर कार्य है। जब तक हिन्दुओं में अस्पृश्यता है तब तक मुझे शर्म आती रहेगी तथा इससे मुझे अपने आपको हिन्दु कहलाने में संकोच होता है। गांधीजी द्वारा दिये गये इन वक्तयों के 100 वर्ष गुजर जाने के बाद भी अस्पृश्यता एक बड़े बहुसंख्यक वर्ग को जीवन के हर क्षेत्र में निर्योग्य बना रही है। सामाजिक जीवन में, धार्मिक किया कलापो में, संस्कृति में, तथा धन्धे व व्यापार में भी अस्पृश्यता के वैचारिक कटु भाव ने इस वर्ग को समानता के अवसर प्राप्त करने से रोका है। दलितों में भी पद दलित वर्ग जैसे वाल्मिकी एवं इसके समकक्ष जातियों के लोग ठीक से धन्धा या व्यापार भी नहीं कर सकते है। फिर चाहे चाय की दुकान हो या कपडे की, जूते चप्पल की हो या वडा पाव की, जाति उजागर होते ही ग्राहक एक दम कम हो जाते है। राजकीय सेवाओं में कार्यरत निम्नतम तबके के पास भेदभाव तथा असमानतापूर्ण व्यवहार की करूणा पैदा करने वाली कई कहानी व किस्से है। इस वर्ग के बच्चों को बड़ी परीक्षाओं की तैयारी के लिए राज्य तथा देश की राजधानी दिल्ली तक में जाति छुपाकर किराया का कमरा लेना पड़ता है। इससे यह प्रतीत होता है कि देश की आजादी के लगभग 80 वर्ष हो जाने के बाद भी हमारी सोच अधिक विकसित नहीं हो पाई है। मेने अभी कोटा दशहरे मेले में उस निम्नतम तबके को देखा जिनकी महिलाये शहर के चौराहो पर वाहनों को रोक-रोक कर बच्चों के गुब्बारे, खिलोने आदि बेचती है तथा भीख मांगती है। इस बार मेले में उन्होंने अपने हाथों से मिट्टी के कई बर्तन तथा हिन्दु देवी देवताओं की छोटी-छोटी सुन्दर मूर्तियां बना रखी थी जिन पर चटकीले रंगो की गजब की नक्कासी व मन मोहक चित्रकारी की गई थी। किन्तु उनके इस छोटे से उद्योग को बढ़ावा देने के बजाय हमारे वालेंटियर तथा पुलिस वाले उन्हें डॉट रहे थे तथा मेले से दूर हट जाने को कह रहे थे जबकि इसके उलट अब की बार वी आई पी कह जाने वाले परिवारों ने भी खाने पीने की दुकानें लगाई जिसमें उनका पूरा परिवार विशेषकर महिलाएं सर्व कर रह थी। ताजुब तो तब हुआ जब मेले की सुरक्षा एजेंसियों के कार्मिकों का भाव उनके प्रति बड़ी श्रद्धा व आदर का था। जैसे दुकानें लगाकर उन्होंने मेले पर विशेष कृपा कर दी हो। हमारे ही देश बन्धुओं के प्रति हमारी वैचारिक उदासीनता एक घातक विकृति है। कुछ विशेष लोग चकाचौंध करने वाले पाईव स्टार होटलों, महगें मोल व बिग बाजार, एयर कण्डिश्नर ट्रैनों व कारों में सफर करते है तथा आलीशान बंगलों में रहते है। लेकिन शहर के चौराहों, फुटपातों, ऑवरब्रिजों के नीचे तथा गन्दी बदबूदार झुग्गी झौपडियों में अभावग्रस्त जीवन जीने वालों को वे ऐसे देखते है जैसे उन्हें देखने का अभ्यास सा हो गया हो। और जैसे यह कोई रोजमर्रा की घटने वाली सामान्य घटना हो। इससे उनके मन व चित पर कोई फर्क नही पड़ता। धन सम्पति तथा व्यवस्था का इतना असमान वितरण क्या हमारी राजनैतिक व्यवस्था पर एक बड़ा सवाल नहीं है? क्या इस पर वैचारिक रचनात्मक चिन्तन की आवश्यकता नही है ? देश मे विशेष कहे जाने लोग एक दिखावटी कम्युनिटी का निर्माण तो कर सकते है किन्तु वे अब्राहिम लिंकन के द्वारा परिभाषित उस स्वस्थ लोकतंत्र को कभी भी निर्मित नही कर सकते जिसमे वे कहते हे कि “जनता” का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन प्रजातंत्र का शासन है। ग्लोबल हँगर इण्डेक्स के अनुसार हम 125 देशों में 111 वें नम्बर पर है। जिसे हम सब अनदेखा कर रहे है जिसका इस आकों से भी गहरा नाता है कि 100 करोड़ लोग 150 रूपये से लेकर 250 रूपये तक की मजदूरी व दिहाड़ी पर निर्भर है और यही वह 80 करोड़ लोग भी है जिनके लिए हमारे केन्द्र सरकार ने 2028 तक मुफ्त खाद्य पदार्थ उपलब्ध कराने की घोषणा की है। क्या इसे हम आर्थिक उपलब्धी कह सकते है? सरकार के द्वारा इस वर्ग के लिए गहन आर्थिक लाभ वाले कार्यकर्मों को विकसित करने की आश्यकता है अस्पृश्यता निवारण के लिए सरकार को और अधिक महान अभियानों की जरूरत पड़ेगी और मुझे तो यह भी लगता है कि इस वर्ग को एक और अम्बेडकर जैसे अवतार की आवश्यकता है जो अब तक दिख नहीं रहा है।

लेखक: राधेश्याम तम्बोली सेवानिवृत प्रधानाध्यापक, लाखेरी, बून्दी,

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