मूकनायक/ देश
राष्ट्रीय प्रभारी ओमप्रकाश वर्मा
डॉ. आंबेडकर की महान् जीवन गाथा को आठ विभिन्न चरणों में विभाजित किया जा सकता है
👉 पहला चरण :- जुलाई 1917 से सितंबर 1920
प्रशासनिक कारणों से लंदन में डॉ. आंबेडकर की उच्च शिक्षा में बाधा पड़ी और उन्हें जुलाई 1917 में भारत वापस लौटना पड़ा। उन्होंने फिर तीन साल बाद सितंबर 1920 में अपनी पढ़ाई दोबारा शुरू की। इस अंतराल में डॉ. आंबेडकर ने सार्वजनिक जीवन में थोड़ा-बहुत भाग लेना शुरू किया। इस चरण में घटी कुछ प्रमुख घटनाएँ निम्नानुसार हैं :-
🔵 साउथबोरो कमेटी के सामने बयान (27 जनवरी 1919)
:- 27 जनवरी 1919 को बाबा साहेब डॉ आंबेडकर ने साउथ बोरो कमेटी के सामने वयस्क मताधिकार की बात कही थी। भारतीयों को मताधिकार कैसे दिया जाए इसके लिए साल 1928 में साइमन कमीशन भारत में आया था। साइमन कमीशन के समक्ष बाबा साहब आम्बेडकर ने हर वयस्क नागरिक को मताधिकार का प्रतिवेदन दिया था। इस प्रतिवेदन में कहा गया कि भारत के हर 21 साल के वयस्क नागरिक चाहे वह स्त्री हो या पुरुष दोनों को मताधिकार दिया जाए।
🔵 पहले मराठी पाक्षिक ‘मूकनायक’ का शुभारंभ (1920)
🔵 मुंबई प्रांत में वंचित, शोषित तथा बहिष्कृत वर्गों के सम्मेलन में भागीदारी (1920)
बाबा साहेब ने कहा कि भारतीय बहिष्कृत वर्ग की स्थिति शोचनीय है*
30, 31, मई और 1 जून 1920 में बोलते हुए कहा :-
सज्जनो,
यह सम्मेलन कई मायनों में अभूतपूर्व है। पहली बार कोई सम्मेलन मुंबई प्रांत में हो रहा है और लोगों में अपने खुद के उत्थान एवं बदलती मानसिकता तथा जागरूकता को लेकर इच्छाशक्ति प्रबल हुई है। बौद्धिक चिंतन की जो प्रक्रिया दल शोषित वर्गों में शुरू हुई है, वह अभूतपूर्व है। आज तक हमारे लोगों को लगता था कि हमारी दुर्दशा का कारण दुर्भाग्य है और इससे उभरने का कोई रास्ता नहीं है तथा हमें इसे स्वीकार करना ही होगा। लेकिन नई पीढ़ी को महसूस होने लगा है कि हमारे मौजूदा हालात का कारण ईश्वर से मिली कोई सजा नहीं है, बल्कि दूसरों की करनी का फल है।
हिंदू धर्म, जिससे हम सभी ताल्लुक रखते हैं, समाज को दो सिद्धांतों के आधार पर दो वर्गों में बाँटता है। पहला है क्षमता और दूसरा शुद्धता और दोनों ही जन्मजात हैं। इस तरह हिंदुओं का तीन विभिन्न उपवर्गों में विभाजन किया जा सकता है।
- जन्म से ही शुद्ध और श्रेष्ठ लोगों को ब्राह्मण वर्ग में रखा गया।
- ब्राह्मणों से कमतर श्रेष्ठ और कमतर शुद्ध लोगों को ‘गैर ब्राह्मण’ कहा गया। 3. जन्म से ही अशुद्ध और निचले माने गए लोगों को दलित वर्ग कहा गया।
जन्म के आधार पर शुद्धता और श्रेष्ठता के अन्यायपूर्ण सिद्धांतों पर आधारित इस तरह के विभाजन से इन तीन वर्गों पर गहरा प्रभाव पड़ा। जन्म से मिली श्रेष्ठता और शुद्धता अक्षम ब्राह्मणों के लिए भी वरदान साबित हुई। वहीं गैर ब्राह्मणों को जन्म से अक्षम होने की परेशानी भुगतनी पड़ी। शिक्षा के अभाव का उनकी प्रगति पर असर पड़ा। शिक्षा हासिल करने का जरिया हालाँकि उनके लिए अभी भी खुला है। यदि आज उन्हें यह हासिल न भी हो तो कल जरूर हो जाएगा। दूसरी ओर सिर्फ जन्म से मिली अक्षमता के कारण हमारे दलित वर्गों की स्थिति शोचनीय है।
इतनी पीढ़ियों से अपने आप को अक्षम और अशुद्ध समझकर हमने अपनी आत्म शक्ति और आत्म-सम्मान को गँवा दिया जो वास्तविक रूप से उत्थान के दो स्तंभ हैं। हिंदू धर्म के अनुसार हम सामाजिक जीवन में किसी अधिकार के हकदार नहीं हैं। हम स्कूल नहीं जा सकते। हम आम कुओं से पानी नहीं भर सकते। हम सड़क पर नहीं चल सकते। हम वाहनों का इस्तेमाल नहीं कर सकते। जन्म से अक्षमता और अशुद्धता के कारण हमने आर्थिक रूप से भारी नुकसान सहा है। व्यापार, सेवाएँ और कृषि जो आय के तीन प्रमुख स्रोत हैं, हमारे लिए वर्जित हैं। अस्पृश्यता के कारण कोई ग्राहक हमारे पास नहीं आता, लिहाजा व्यवसाय कर पाना भी असंभव है। अछूत होने के कारण हमें नौकरियाँ नहीं मिलतीं और कई बार अपार प्रतिभाशाली होने के बावजूद लोग हमारी जाति के कारण हमारे अधीन काम नहीं करते। इन भावनाओं के कारण सैन्य सेवाओं में भी हमारी संख्या में कमी आई है। यही हाल कृषि का भी है। हमारे पास उपजाऊ भूमि नहीं है। ऐसे दोषों के साथ कोई समाज विकास नहीं कर पाता। प्रगति के लिए स्वाभाविक क्षमता और अनुकूल वातावरण जरूरी है। दलित वर्गों में प्रतिभा की कमी नहीं है। उनकी उन्नति में एकमात्र बाधा अस्वस्थ सामाजिक माहौल है। समय-समय पर हमारी स्थिति सुधारने के लिए अनगिनत उपाय बताए जाते हैं, लेकिन प्रगति के लिए हमें राजनीतिक रूप से खुद को मजबूत बनाना होगा और इसके लिए हमें जाति आधारित राजनीतिक प्रतिनिधित्व की जरूरत है। सिर्फ ‘सत्य ही जीतता है’ का सिद्धांत खोखला है। सत्य को जिताने के लिए हमें आंदोलन करना होगा।
👉 दूसरा चरण :- अप्रैल 1923 से नवंबर 1930
यह चरण डॉ. आंबेडकर के सार्वजनिक जीवन का आधारकाल था। इसी अवधि में डॉ. आंबेडकर ने अपने सामाजिक आंदोलन की नींव रखी। इस चरण की प्रमुख घटनाएँ निम्नानुसार हैं:—
🔵 डॉ. आंबेडकर के प्रथम सामाजिक संगठन ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ (1924) की स्थापना,
🔵 1924 में समता सैनिक दल की स्थापना की
🔵 हिल्टन यंग आयोग (1925) के सामने बयान (जिसने 1935 में भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना की),
🔵 मुंबई प्रांत विधान परिषद् में सदस्य के रूप में मनोनयन (1927)
🔵 जनांदोलन-महाड सत्याग्रह का आरंभ (15 जुलाई 1927)
सज्जनो,
सत्याग्रह का अर्थ है जंग, लेकिन यह जंग तलवारों, बंदूकों, तोपों और बमों से नहीं लड़ी जानी है। यह शस्त्रहीन जंग है। पतुल्लाखली और वैकोम जैसे जगह लोगों द्वारा किए गए सत्याग्रह की तरह हम महाड में सत्याग्रह करने जा रहे हैं। इस सत्याग्रह के दौरान सरकार हमें किसी अनुच्छेद के तहत शांति भंग करने के लिए गिरफ्तार भी कर सकती है। आपको जेल जाने के लिए भी तैयार रहना होगा। ऐसे लोग जो परिवारों की देखभाल करना चाहते हैं, उन्हें मैं कहूँगा कि वे इस सत्याग्रह में भाग न लें। सत्याग्रह के लिए हमें साहसी एवं स्वाभिमानी व्यक्तियों की जरूरत है और केवल ऐसे बहादुर हृदय वाले लोग जो मानते हैं कि छुआछूत इस देश पर काला धब्बा है और जो इसे समाप्त करने को दृढ़ संकल्पित हैं, केवल उन्हीं को सत्याग्रह अपने हाथों में लेना चाहिए। मुझे यकीन है कि बहिष्कृत वर्गों में हमें पर्याप्त बहादुर हृदय के लोग मिल सकते हैं।
🔵 ‘मनुस्मृति’ का सार्वजनिक दहन (25 दिसम्बर 1927)
मनुस्मृति जलाने से पहले एक
सम्मेलन हुआ उस में, पहला प्रस्ताव जो पारित हुआ, वह इस प्रकार है:-
मनुस्मृति में शूद्रों से सम्बन्धित टिप्पणियों तथा ऐसी ही कुछ दूसरी घृणित पुस्तकों पर, जो मानवाधिकारों का उल्लंघन करती हैं, विचार करते हुए, यह सभा उनका खण्डन करती है और उन्हें जलाने का प्रस्ताव करती है तथा हिन्दू समाज के पुनर्निर्माण के लिए अधिकारों को आधार बनाने की घोषणा करती है।
इस घोषणा-पत्र में कहा गया है कि सभी हिन्दू एक ही वर्ण के माने जाएँ और ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्ण के प्रयोग पर कानूनन प्रतिबन्ध लगाया जाए।
दूसरा प्रस्ताव इस माँग को लेकर था कि हिन्दू पुरोहित की नियुक्ति के लिए प्रतियोगिता-परीक्षा कराई जाए और परीक्षा में उत्तीर्ण प्रतिभागी को पुरोहिती का लाइसेंस दिया जाए।
भाषणों में मुख्यतयः ब्राह्मणों और ब्राह्मणवाद का विरोध किया गया। मि. माण्डलिक ने सभा में बोलने की अनुमति माँगी, परन्तु अध्यक्ष ने अनुमति नहीं दी। मि. डी. वी. प्रधान, जो सवर्ण हैं, ने मनुस्मृति को जलाने का समर्थन किया। अन्त में, मनुस्मृति को जलाने की कार्यवाही शुरु हुई। मनुस्मृति को जलाने के तत्पश्चात सम्मेलन अगले दिन के लिए स्थगित हो गया।
सम्मेलन में कलेक्टर, पुलिस अधीक्षक और 100 सशस्त्र पुलिस के जवान मौजूद थे।
🔵 नए मराठी पाक्षिक ‘बहिष्कृत भारत’ का प्रकाशन (1927)
🔵 नए मराठी पाक्षिक, ‘जनता’ का प्रकाशन (1930)
🔵 अखिल भारतीय वंचित वर्ग सम्मेलन, नागपुर (1930)
इस चरण में डॉ. आंबेडकर ने प्रांतीय स्तर पर देश में सामाजिक आंदोलन की अमिट छाप छोड़ी। उनका योगदान इतना प्रभावशाली था कि ब्रिटिश सरकार ने उनका चयन लंदन में होनेवाले गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए किया। इससे बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के राष्ट्रीय स्तर पर उभरने का रास्ता साफ हो गया।
👉 तीसरा चरण :- नवंबर 1930 से अगस्त 1936
इस चरण की शुरुआत डॉ. आंबेडकर के पहले गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने से शुरू हुई और इसका अंत उनकी स्वयं की पार्टी-इंडिपेडेंट लेबर पार्टी बनाकर औपचारिक तौर पर राजनीति में कूदने के साथ हुआ। इस चरण की मुख्य घटनाएँ निम्नानुसार रहीं :-
🔵 पहला गोलमेज सम्मेलन (नवंबर 1930 से जनवरी 1931)
🔵 डॉ. आंबेडकर और महात्मा गांधी की पहली मुलाकात (अगस्त 1931)
🔵 दूसरा गोलमेज सम्मेलन
(सितंबर-दिसंबर 1931),
🔵 तीसरा गोलमेज सम्मेलन
(नवंबर-दिसंबर 1932 )
🔵 गांधी-आंबेडकर विवाद, आंबेडकर के विरोध में गांधी का अनशन और
गांधी-आंबेडकर समझौता
(‘पूना पैक्ट’, 24 सितंबर, 1932)
:- 24 सितम्बर 1932 को इस पूना पैक्ट पर अस्पर्श्य/शोषित वर्ग की ओर से बाबा साहब डॉक्टर अंबेडकर ने हस्ताक्षर किए।
गांधी और स्वर्ण हिंदुओं की ओर से पंडित मदन मोहन मालवीय ने हस्ताक्षर किए।
इसके बाद पूना पैक्ट में हुए सारे मुद्दों की जानकारी ब्रिटिश मंत्रिमंडल को भेज दी गई।
:- बाबा साहब कहते हैं कि मेरी तरह कोई व्यक्ति दोहरे संकट में आज तक नहीं फसा होगा।
:- जहां पर एक तरफ मेरे ऊपर गांधी जी के प्राण बचाने की जिम्मेदारी थी। वहीं पर मेरी एक और बड़ी जिम्मेदारी अपने समाज के लोगों के हितों की रक्षा करनी थी।
:- बाबा साहब कहते हैं कि अगर गांधी जी ने गोलमेज कांफ्रेंस में ही मेरी बातों पर ध्यान दिया होता और विचार किया होता तो आज हम इस संकट में नहीं पड़े होते फिर भी हमने बहुत समय तक वाद विवाद और काफी शोर-शराबा मचने के बाद भी आखिर हमने निर्णय लिया और यह समझौता किया।
:- साथियों इस समझौते में हमारे दो वोट के अधिकार पर गांधी जी ने डाका डाला और सेपरेट इलेटोरेट का जो विशेष अधिकार हमें मिला था वो खत्म हो गया, केवल एक सामान्य वोट ही अधिकार रह गया।
:- 26 सितंबर 1932 को ब्रिटिश मंत्रिमंडल ने पुणे करार पर ब्रिटिश लोकसभा की मोहर लगवा कर उसे मंजूर करवा लिया।
:- इस पूना पैक्ट में पिछड़ों और अतिपिछड़ों को जो अपना अलग से प्रतिनिधि चुनने का अधिकार और वोट का अधिकार दिया गया था वह समाप्त हो गया और केवल एक सामान्य वोट का ही अधिकार रह गया और इस प्रकार हम लोग दो वोट के अधिकार से वंचित हो गए।
:- ये समझौता गांधी के महात्मा होने की हार थी परंतु गांधी के राजनीतिज्ञ होने की जीत थी।
:- गांधी की ये जीत ठीक ऐसे ही थी जैसे कि कोई हमारे हाथ से आम छीन कर, उसका रस चूस कर, आम की गुठली हमें दे दे।
🔵 बाबा साहेब डॉ आंबेडकर का मुंबई नगर निगम कर्मचारी संघ के अध्यक्ष के रूप में निर्वाचन (अप्रैल 1934)
🔵 13 अक्टूबर 1935 को हिंदू धर्म छोड़ने का एलान किया, जिससे देशभर में हलचल मच गई।
🔴बाबा साहब डॉ आंबेडकर ने कहा कि :-
👉मैं हिन्दू धर्म पैदा जरूर हुआ हूँ ये मेरे वश में नही था।
👉लेकिन मैं हिन्दू धर्म में रह कर मरूँगा नही ये मेरे वश में है।
🧠मेरा दृढ़ विश्वास है कि हमारे पुरखे हिन्दू नही थे।
मुक्ति कौन पथे?
🍏🍏13 अक्टूबर 1935 को नासिक के येवला के मैदान में दिए गए भाषण का एक अंश
बाबा साहब कहते हैं :-
🗣️इस धर्म में हमारे पूर्वज थे यह बात सही है। किंतु वे लोग स्वयं अपनी बुद्धि से, स्वयं प्रेरणा से रहे इस बात को मैं नहीं मान सकता हूं। इस देश में कई वर्षों से चातुर्वर्णी व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मणों को विद्या पढ़ना चाहिए, क्षत्रियों को युद्ध करना चाहिए, वेश्य को व्यापार करना चाहिए और शूद्रों को ऊपरी सभी वर्गों की सेवा करनी चाहिए।
💎👉इस प्रकार का नियमबद्ध वर्णक्रम मत्थे मढ़ दिया गया था। इस वर्णक्रम में शूद्र ,अति शूद्र वर्ण के लिए न तो कोई विद्या थी और न तो कोई धन और दौलत थी और न तो कोई अन्न(खाना), वस्त्र और निवास था। ऐसी विपन्न और नि:शास्त्र अवस्था में हमारे जिन पूर्वजों को रहना पड़ा, उन्होंने यह वैदिक अर्थात ब्राह्मणी धर्म को स्वयं खुशी से अपनाया होगा, ऐसा कोई भी समझदार आदमी नहीं कह सकता है।
💎👉क्या आपके इन पूर्वजों को ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध विद्रोह करना संभव हो सकता था? इस पर जरूर विचार होना चाहिए। यदि उनको इस ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध विद्रोह करना संभव था, फिर भी उन्होंने नहीं किया, तो यह मान सकते हैं, कि उन्होंने इस धर्म को स्वयं खुशी से अपनाया था।
💎👉वास्तविकता यह है कि, वह निरूपाय थे। उनके पास कोई उपाय नही था। वह लाचार थे। इसीलिए उन्हें इसी धर्म में रहना पड़ा। यह बात निर्विवाद है।
💎👉इस दृष्टि 👁️से देखने पर ब्राह्मणी धर्म अर्थात हिंदू धर्म हमारे पूर्वजों का धर्म नहीं हो सकता है। ब्राह्मणी धर्म उनके ऊपर जबरदस्ती लादा गया था। यह एक गुलामी 🧟♂️🧟♀️दासता थी। हमारे पूर्वजों को इसी धर्म में रखना यह क्रूर खूनी✋ पंजा था। हमारे पूर्वजों के खून 🩸का प्यासा था। इस गुलामी से अपनी मुक्ति पाने की क्षमता और साधन उनके पास उपलब्ध नहीं थे। इसीलिए उन्हें इस गुलामी के विरुद्ध विद्रोह करना संभव नहीं था। उन्हें गुलामी में ही रहना पड़ा। इसके लिए हम उन्हें दोषी नहीं ठहराएंगे।
💎👉किंतु आज की पीढ़ी पर उस प्रकार की जबरदस्ती कोई किसी के लिए संभव नहीं है। हमें हर तरह की स्वतंत्रता है। इस आज का सही -सही उपयोग कर यदि इस पीढ़ी ने अपनी मुक्ति का रास्ता नहीं खोजा, तो यह जो हजारों साल से ब्राह्मणी अर्थात हिंदू धर्म की गुलामी है, इसको नहीं तोड़ा, तो मैं यही समझूंगा, कि 👉उनके जैसे नीच 👉उनके जैसे हरामी और 👉उनके जैसे कायर जो 👉स्वाभिमान बेच कर पशुओं से भी गई गुजरी जिंदगी बसर करते हैं, अन्य कोई नहीं होंगे। यह बात मुझे बड़े दुख और बड़ी बेरहमी से कहनी पड़ती है।
:- डॉ अम्बेडकर
13 अक्टूबर 1935
नासिक,येवला मैदान
🔵 राजनीतिक दल इंडिपेडेंट लेबर पार्टी (आई.एल.पी.) की स्थापना और राजनीति में औपचारिक प्रवेश।
👉 चौथा चरण :- 1937 से जुलाई 1942
इस चरण में डॉ. आंबेडकर मुंबई प्रांत में राजनेता के रूप में साथ-ही-साथ अग्रणी मजदूर नेता के रूप में उभरे। इस चरण की प्रमुख घटनाएँ निम्नानुसार रहीं :-
🔵 इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी को मुंबई प्रांतीय विधान सभा के चुनावों में उल्लेखनीय सफलता (1937)
🔵 ‘खोती प्रणाली’ के विरुद्ध जनांदोलन (1937 )
👨 क्या है ‘खोती प्रणाली’ :-
खोतों के प्रशासन की व्यवस्था को खोती कहा जाता था ।
खोत ब्रिटिश भारत के एक गांव के प्रशासनिक अधिकारी थे।
- वह गांव से कृषि उपज एकत्र करके सरकार को देते थे ।
खोती पद्धति ज्यादातर कोंकण के रायगढ़, रत्नागिरी और सिंधुदुर्ग में पाई जाती थी। - खोत शब्द का सामान्य अर्थ “ज़मींदार” था। • यह एक अन्यायपूर्ण प्रथा थी कि खोती प्रथा द्वारा किसानों का शोषण किया जा रहा था।
- बाबा साहेब डॉ आंबेडकर ने खोती व्यवस्था को नष्ट करने और इसे समाप्त करने के लिए संघर्ष किया।
बाबा साहेब डॉ आंबेडकर महाड़, चिपलून, खेड़ आदि में अनेक सभाएँ करते रहे।
बाबासाहेब अंबेडकर उस समय किसानों पर हुए मुकदमों को लड़ने के लिए किसानों की ओर से अदालत में खड़े हुए थे।
🔵 ‘महार वतन’ के विरुद्ध जन संघर्ष (1937)
🔵 ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल का विरोध किया (1938) जिससे बाबा साहेब डॉ आंबेडकर को मजदूर नेता के रूप में व्यापक मान्यता मिली।
इस चरण में बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के महत्त्वपूर्ण योगदान के कारण उन्हें वायसराय की कार्यकारी परिषद् में श्रम सदस्य अर्थात् श्रम मंत्री के रूप में मनोनीत किया गया।
👉 पाँचवाँ चरण :- जुलाई 1942 से मई 1946
यह चरण डॉ. आंबेडकर के जीवन का विशिष्ट चरण है जिसमें उन्होंने भारत में ब्रिटिश सरकार के मंत्री के रूप में कार्य किया। वायसराय की कार्यकारी परिषद् के सदस्य के रूप में डॉ. आंबेडकर ने श्रम और रोजगार, ऊर्जा, खनिज एवं जल प्रबंधन जैसे महत्त्वपूर्ण विभाग सँभाले। मंत्री के रूप में शानदार कार्य करने के साथ-साथ इस चरण में उन्होंने दो और महत्त्वपूर्ण कार्य किए :-
🔵 व्यापक आधार वाली नई राजनीतिक पार्टी-शेड्यूल कास्ट फेडरेशन (एस.एफ.सी.) की स्थापना की (जुलाई 1942)
🔵 पीपुल्स एज्यूकेशन सोसाइटी (पी.ई.एस.) नाम की शैक्षणिक संस्था की स्थापना की (जुलाई 1945)
👉 छठा चरण :- मई 1946 से जुलाई 1946
यह छोटा चरण है जो कि बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के लिए भारी अनिश्चितता और बेचैनी भरा रहा। वायसराय की कार्यकारी परिषद् के भंग होने के बाद 19 जून, 1946 को बनी कार्यवाहक सरकार के मंत्रिमंडल में डॉ. आंबेडकर को शामिल नहीं किया गया (उनकी जगह बाबू जगजीवन राम को शामिल किया गया।)। यह अनिश्चितता जुलाई 1946 में बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के बंगाल प्रांत से संविधान सभा के लिए निर्वाचित होने के साथ ही खत्म हो सकी। इस चरण की प्रमुख घटनाएँ निम्नानुसार रहीं :-
🔵 केंद्र में कार्यवाहक सरकार का गठन
🔵 ब्रिटिश सरकार के तीन मंत्रियों के कैबिनेट मिशन द्वारा घोषित योजना के विरोध में बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने एक विरोध आंदोलन किया। इस विरोध का असर बंबई प्रांत, कानपुर, लखनऊ आदि जगहों पर फैला।
👉 सातवाँ चरण :- जुलाई 1946 से सितंबर 1951
इस प्रभावशाली चरण की शुरुआत बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के संविधान सभा के लिए निर्वाचित होने के साथ हुई और इसका समापन सितंबर 1951 में कानून मंत्री के रूप में केंद्रीय मंत्रिमंडल से उनके इस्तीफे के साथ हुआ। इस चरण में बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने अपने को नए स्वतंत्र भारत के पुनर्निर्माण में लगाया। इस चरण की महत्त्वपूर्ण और ऐतिहासिक घटनाएँ निम्नानुसार रहीं :-
🔵 संविधान सभा के लिए बंगाल प्रांत से निर्वाचन (जुलाई 1946)
🔵 जुलाई 1947 में फिर से बाबा साहेब को बंबई से संविधान सभा के लिए पुनर्निर्वाचित कर लाया गया।
🔵 बाबा साहेब डॉ आंबेडकर भारत के पहले कानून मंत्री बनाए गए।
(अगस्त 1947)
🔵 बाबा साहेब डॉ आंबेडकर भारत के संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष बनाए गए। (अगस्त 1947)
🔵 भारत के संविधान को मंजूर कराया
(26 नवंबर 1950)
इस चरण को बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर को भारतीय संविधान के निर्माण में प्रमुख भूमिका के ऐतिहासिक और अद्वितीय कार्य के लिए याद किया जाता है। इसके अतिरिक्त बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री के रूप में विशिष्ट योगदान दिया और आधुनिक भारत के कानूनी ढाँचे की नींव रखी। बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मतभेदों के कारण 8 सितंबर, 1951 को केंद्रीय मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया।
👉 आठवां चरण :- सितंबर 1951 से 6 दिसंबर, 1956
इस अंतिम चरण में बाबा साहब डॉ. आंबेडकर ने सक्रिय राजनीति से दूरी बना ली और हिंदू धर्म का त्याग करते हुए बौद्ध धर्म अपना लिया। इस चरण की महत्त्वपूर्ण घटनाएँ निम्नानुसार रहीं :-
🔵 प्रथम आम चुनाव (1952)
🔵 लोकसभा चुनाव लड़े और पराजित हुए (1952)
🔵 राज्यसभा सांसद बने (1952)
🔵पत्रिका ‘प्रबुद्ध भारत’ का प्रकाशन आरंभ किया (फरवरी 1956)
🔵 14 अक्टूबर 1956 को लाखों अनुयायियों के सामने बौद्ध धम्म को स्वीकार किया। और उसके बाद कई लाख को 22 प्रितज्ञाओं / आदेशों के साथ बौद्ध धम्म की दीक्षा दिलाई। और कहा कि मेरे अनुयायियों ने मेरी इन 22 आज्ञाओं का पालन किया तो आने वाले दस सालों में मांगने वालों से देने वाले बन जाएंगे।
🔵 6 दिसंबर, 1956 को बाबा साहेब डॉ आंबेडकर का महापरिनिर्वाण हो गया और वो हमेशा- हमेशा के लिए हमको छोड़ कर चले गए।
संदर्भ पुस्तक:-
डॉ आंबेडकर आत्मकथा एवं जनसंवाद
:- डॉ नरेंद्र जाधव
🙏🙏🙏🙏🙏🅰️🅿️
:- ए पी सिंह निरिस्सरो
जय भीम जय भारत जय संविधान