कपिलवस्तु गणराज्य के महाराज सुद्दोधन थे | उस समय गणतांत्रिक लोकतंत्र की व्यवस्था राज्य में कायम थी | राज्य संचालन राजनीति या समाज की किसी भी समस्या के समाधान के लिए गण परिषद का जो भी फैसला बहुमत या सर्व सम्मति से लिया जाता था | महाराज उस फैसले पर अपनी स्वीकृति देते थे | यह आज की गणतांत्रिक लोकतंत्र की तरह ही है | महाराज सुद्दोधन के बड़े पुत्र राजकुमार सिद्धार्थ जब 21 वर्ष के हुये तो वह अपने राज्य की गण परिषद के सदस्य बने | उन्हें युवराज भी घोषित कर दिया गया था |
गण परिषद के नियम पालन, अनुशासन,संयम व विवेकशील निर्णय लेने की क्षमता को देखकर गण परिषद के सदस्यों ने सर्व सम्मति से युवराज सिद्धार्थ को शीघ्र ही गण परिषद का मुखिया यानी गणपति घोषित कर दिया था |
राजकुमार सिद्धार्थ का पूरा नाम सिद्धार्थ गोतम था | जो उनकी क्षीर दायिनी माता महाप्रजापति गौतमी के नाम का सरनेम लगाकर पूर्ण होता है |
उनकी जन्म दायिनी माता महामाया ने गर्भधारण की रात्रि को सपने में सूँड़ में कमल पुष्प लिये देवतुल्य सफेद हाथी को देखा था | विद्वान विचारकों ने रानी महामाया के सपने का खूब महिमा मंडन किया है |
इसीलिये कहा जाता है कि सिद्धार्थ गोतम के साथ हाथी और कमल विशेष महत्व रखता है |
गृह त्याग के बाद छः वर्षों की कठोर ध्यान साधना के बाद गया के पास एक पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें परम ज्ञान अर्थात् बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी | इसलिये ही हाथी कमल के साथ पीपल का पेड़ भी उनके जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखता है |
अब सिद्धार्थ गोतम बोधिसत्व से तथागत बुद्ध हो चुके थे |
लोग यहाँ पर यह भी जिज्ञासा रखते हैं कि आखिर भगवान तथागत बुद्ध को कौन सा सर्वोत्तम ज्ञान प्राप्त हुआ था ? उनके लिए यही ठीक है कि बुद्ध को प्राकृतिक संचालन संरचना के तत्वों पदार्थों उनके नियमों के तथ्यों का सही सही ज्ञान प्राप्त हुआ था | इसीलिये वह तथ्य + अवगत यानी तथागत कहलाये |
प्राकृतिक नियमों पर ध्यान करने से ही उन्होंने जान लिया था कि संसार में जो कुछ भी घटित हुआ है, हो रहा है अथवा जो भी होगा सब कार्य कारण का परिणाम है | उन्होंने इसे प्रतीत्यसमुत्पाद कहा है |
बुद्ध ने स्वयं अर्जित ज्ञान से लोक कल्याण की भावना से ज्ञान बाँटने के लिये भिक्खु संघ की स्थापना की | भिक्खु संघ के भी संयम नियम विनय और अनुशासन थे | भिक्खु गण संघ के सभी सदस्य भिक्षुओं ने तथागत बुद्ध की शिक्षाओं प्रेरणाओं और ज्ञान परिपूर्णता से पूर्ण रूप से संतुष्ट और लाभान्वित होकर अपने को बुद्ध का शिष्य मान लिया था |
उन सभी भिक्षुओं ने तथागत बुद्ध को अपने भिक्खु संघ (भिक्षु संघ) का शास्ता गुरू स्वामी अधिपति यानी भिक्खु गण का गणपति मान लिया था |
तब से तथागत बुद्ध का दूसरा नाम गणपति हो गया था |
इस प्रकार इतिहास के पहले गणपति तथागत बुद्ध हुये |
पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार भगवान गणेश जी (जो कमल पर बैठे हैं, गर्दन के नीचे का शरीर मानव का और गर्दन का ऊपरी भाग यानी सिर हाथी का है) को गणपति कहा गया है | पौराणिक ग्रन्थों की बात को सही मानना किसी की आस्था का विषय हो सकता है |
हालाँकि वैज्ञानिक और तार्किक रूप से मानव शरीर पर हाथी का सिर होना सिद्ध कर पाना लौकिक संसार में तो असंभव ही लगता है |
इसलिये कहा जा सकता है कि मानवीय ऐतिहासिक पुरातात्विक व वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर तथागत बुद्ध ही असली गणपति हैं |
राष्ट्र संत ज्योतिबा फूले ने सामाजिक समरसता के लिये उन्नीसवीं शताब्दी ईसा के उत्तरार्ध 1873 – 1877 में सत्य शोधक समाज की समता मूलक अलख जगायी थी | ज्योतिबा फूले का सत्य शोधक समाज – वर्ण व्यवस्था, ऊँच-नीच, जाति पाँति, छुआ छूत व स्त्री पुरुषों में किसी भी असमानता का विरोधी था | इसलिये सभी शूद्र अछूत तथा समाज सुधारक लोगों ने बड़े उत्साह से इस आन्दोलन में भागीदारी की | धीरे धीरे आन्दोलन की गति में अभूतपूर्व तेजी आयी |
जब इस आन्दोलन ने बड़ा भव्य रूप धारण करना शुरू कर दिया तो मनुवादियों में खलबली मच गयी | मनुवादियों ने सत्य शोधक समाज को छोटा करने के उद्देश्य से इसी सामाजिक आन्दोलन के समानान्तर गणपति महोत्सव मनाना शुरू कर दिया |
गणपति महोत्सव में इंसानी शरीर पर हाथी के सिर वाली मूर्ति को गणपति गणेश कहा जाता है | लोगों की आस्था सत्य शोधक समाज से हटकर गणपति गणेश की तरफ मुड़ गयी | लोग श्रद्धा भाव से गणपति गणेश जी का जुलूस निकालने लगे |
ऐतिहासिक रूप से उन्नीसवीं सदी उत्तरार्ध से पहले गणपति महोत्सव का इतिहास नहीं मिलता है |
चूँकि मनुवादियों के पास धन की कोई कमी नहीं है इसलिये जुलूस की सजावट व भव्यता देखते ही बनती थी | आजकल तो गणपति गणेश का महोत्सव इतना बड़ा हो गया है कि गाँव गाँव, शहर शहर में करोड़ों लोग पूरे दस दिन तक पंडाल सजा कर पूजा पाठ आराधना करते हैं |
कुछ पाखंडी पुजारियों ने तो इस महोत्सव को कमाई का जरिया ही बना लिया है | पंडाल सजाने मूर्तियाँ लगाने के लिए पहले तो चंदा बसूलते हैं, फिर चढ़ौती के नाम पर जो धन की बरसात होती है उससे ये लोग मालामाल हो जाते हैं |
दसवें दिन मूर्ति विसर्जन करते हैं और कहते हैं – गणपति बप्पा मोरया अबकी बरस तू जल्दी आ | यह पंडा पुजारी जब गणेश विसर्जन करते हैं तो दस दिनों तक पूजी गयी उन मूर्तियों की दुर्दशा कर डालते हैं | जिसको देखकर सभ्य परिवार लज्जित हो जाता है | इनके गणपति विसर्जन का भी कुछ लोग अलग अलग मतलब निकालते हैं |वे कहते हैं कि गणेश पूजा और जुलूस में सभी वर्ग के लोग यहाँ तक कि शूद्र अछूत लोग भी सम्मिलित होते हैं | वह इन मूर्तियों को स्पर्श भी करते हैं |
अब अछूतों की स्पर्श की हुई मूर्तियों को कौन पुजारी अपने घर रखेगा ? इसलिये विसर्जन करना ही सही है | भावना जो भी हो दावा नहीं किया जा सकता है | गणेश जी का चरित्र चित्रण भागवत ग्रन्थों पुराणों आदि में मिलता है |
यह गणपति बप्पा मोरया शब्द भी मगध सम्राटों के मौर्य वंशीय शासन का चुराया हुआ शब्द लगता है | क्योंकि मौर्य शब्द मौर्य सम्राटों की वंशावली का सरनेम है | मौर्य शासक सम्राट अशोक मौर्य को भी संपूर्ण जम्बूदीप भारत गणराज्य का गणपति या स्वामी (बप्पा) कहा गया है | सम्राट अशोक की जीवनी से |
जैसा कि सर्व विदित है कि सम्राट चंद्रगुप्त से लेकर सम्राट बृहदरथ मौर्य तक दस मौर्य वंशीय सम्राटों ने संपूर्ण भारत गणराज्य पर शासन किया था | चूँकि भारत या तथागत बुद्ध की आभा से आभा से आलोकित महा + आभा + रत महाभारत अनेक गणराज्यों से मिलकर एक महा संघीय जम्बू दीप था | इसके शासकों को ही प्रथम तौर पर गणपति घोषित किया गया था | ऐतिहासिक रूप से मौर्य सम्राट अशोक ही गणपति थे | वही गणपति बप्पा मौर्या हैं |
यह सब इतिहास मानने वालों की इतिहास में तथा पौराणिक ग्रन्थों को मानने वालों की पुराणों के अनुसार अलग अलग आस्था का विषय हो सकता है |
यहाँ पर गणपति बुद्ध चरित्र- तथागत बुद्ध की जीवनी और उनके इतिहास से लिया गया है तथा सत्य शोधक समाज का वर्णन ज्योतिबा फूले की जीवनी से लिया गया है | बुद्ध, सम्राट अशोक, ज्योतिबा फूले का ऐतिहासिक पुरातात्विक सबूत है |
नमो बुद्धाय
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डी डी दिनकर (मैनेजर)
अध्यक्ष बीएसआई
चमन गंज फफूंद
फफूंद जिला औरैया 206247
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